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मिथिलेश वर्मा बलौदा बाजार, छत्तीसगढ़ की परंपरा संस्कृति कला को सहेज कर एवं संजोकर रखने में आज भी नन्हे नन्हे बच्चों का विशेष योगदान देखने को मिल रहा है आज समय की भागदौड़ में लोग अपने-अपने निजी स्वार्थ के चलते उलझते जा रहे हैं समाज एवं औरों के लिए बिल्कुल बड़ी मुश्किल से समय निकाल पाते हैं वही छोटे-छोटे बच्चों के द्वारा निस्वार्थ रूप से छत्तीसगढ़ की परंपरा को बचाएं रखने में लगे हुए हैं आज के आधुनिक युग में लोगों को इतना समय भी नहीं है जो अपनी परंपरा को बचा सके लेकिन छोटे-छोटे बच्चे आज भी अपनी परंपरा को बचाने समय-समय पर अपनी विशेष योगदान देते रहते हैं जहां भूपेश सरकार द्वारा छत्तीसगढ़ की परंपरा को आगे बढ़ाने के उद्देश्य से पारंपरिक खेल जैसे गिल्ली डंडा भंवरा बाती संकली फुगड़ी कबड्डी को-को जैसे आदि खेलों को बढ़ावा देने के उद्देश्य से छत्तीसगढ़िया ओलंपिक का आयोजन विभिन्न आयु वर्ग के लोगों के लिए महिला पुरुषों के लिए अलग-अलग व्यवस्था कर परंपरा को बचाए रखने के लिए विशेष अभियान चलाया जा रहा है इसी कड़ी में आज भी नन्हे नन्हे बच्चे स्वफूर्त ही छत्तीसगढ़ की छत्तीसगढ़ की परंपरा को जीवित रखने के लिए संघर्षरत हैं जब से कार्तिक मास लगा है तब से ग्राम लटूवा मोहतरा, झोंका,बेमेतरा,मुड़ियाडीह, रसेड़ा ,रसेड़ी, आदि गांवों के नन्हे नन्हे बच्चों के द्वारा अपनी परंपरा को अक्षुण बनाएं रखने के उद्देश्य से सुबह से शाम तक सुवा गीत गाते हुए नृत्य करते दिख रहे है। छत्तीसगढ की लोक कला पंथी,कर्म, ददरिया,सुवा, नाचा गम्मत, राऊत नृत्य, गौरी गौरा नृत्य जिसके बदौलत आज छत्तीसगढ की एक अलग पहचान बना चुकी है इन्हीं सास्कृतिक कला के लिए भारत ही नहीं बल्कि पुरे दुनिया मे छत्तीसगढ का एक विशेष पहचान सस्कृति,कला, रहन सहन, वेश भूषा,खानपान के लिए बना हुआ है। छोटे छोटे बच्चो के द्वारा आज भी अपनी परंपरा को जीवित रखने के लिए घर घर जाकर सुबह शाम नृत्य करते है तब लोगो के द्वारा नन्हे नन्हे बच्चों को प्रोत्साहित करने के लिए अन्न दान एवं कुछ द्रव्य देकर बच्चो को प्रोत्साहन करते है इसके बदले छोटे छोटे बच्चे विदाई गीत गाकर घर वालो को आशीष प्रदान करते है। लोगो के द्वारा मिले हुए अन्न एवं द्रव्य से कार्तिक मास के शरद पूर्णिमा के दिन खीर पूड़ी बनाकर प्रसाद के रूप मे वितरण करते है

मिथिलेश वर्मा बलौदा बाजार, छत्तीसगढ़ की परंपरा संस्कृति कला को सहेज कर एवं संजोकर रखने में आज भी नन्हे नन्हे बच्चों का विशेष योगदान देखने को मिल रहा है आज समय की भागदौड़ में लोग अपने-अपने निजी स्वार्थ के चलते उलझते जा रहे हैं समाज एवं औरों के लिए बिल्कुल बड़ी मुश्किल से समय निकाल पाते हैं वही छोटे-छोटे बच्चों के द्वारा निस्वार्थ रूप से छत्तीसगढ़ की परंपरा को बचाएं रखने में लगे हुए हैं आज के आधुनिक युग में लोगों को इतना समय भी नहीं है जो अपनी परंपरा को बचा सके लेकिन छोटे-छोटे बच्चे आज भी अपनी परंपरा को बचाने समय-समय पर अपनी विशेष योगदान देते रहते हैं जहां भूपेश सरकार द्वारा छत्तीसगढ़ की परंपरा को आगे बढ़ाने के उद्देश्य से पारंपरिक खेल जैसे गिल्ली डंडा भंवरा बाती संकली फुगड़ी कबड्डी को-को जैसे आदि खेलों को बढ़ावा देने के उद्देश्य से छत्तीसगढ़िया ओलंपिक का आयोजन विभिन्न आयु वर्ग के लोगों के लिए महिला पुरुषों के लिए अलग-अलग व्यवस्था कर परंपरा को बचाए रखने के लिए विशेष अभियान चलाया जा रहा है इसी कड़ी में आज भी नन्हे नन्हे बच्चे स्वफूर्त ही छत्तीसगढ़ की छत्तीसगढ़ की परंपरा को जीवित रखने के लिए संघर्षरत हैं जब से कार्तिक मास लगा है तब से ग्राम लटूवा मोहतरा, झोंका,बेमेतरा,मुड़ियाडीह, रसेड़ा ,रसेड़ी, आदि गांवों के नन्हे नन्हे बच्चों के द्वारा अपनी परंपरा को अक्षुण बनाएं रखने के उद्देश्य से सुबह से शाम तक सुवा गीत गाते हुए नृत्य करते दिख रहे है। छत्तीसगढ की लोक कला पंथी,कर्म, ददरिया,सुवा, नाचा गम्मत, राऊत नृत्य, गौरी गौरा नृत्य जिसके बदौलत आज छत्तीसगढ की एक अलग पहचान बना चुकी है इन्हीं सास्कृतिक कला के लिए भारत ही नहीं बल्कि पुरे दुनिया मे छत्तीसगढ का एक विशेष पहचान सस्कृति,कला, रहन सहन, वेश भूषा,खानपान के लिए बना हुआ है। छोटे छोटे बच्चो के द्वारा आज भी अपनी परंपरा को जीवित रखने के लिए घर घर जाकर सुबह शाम नृत्य करते है तब लोगो के द्वारा नन्हे नन्हे बच्चों को प्रोत्साहित करने के लिए अन्न दान एवं कुछ द्रव्य देकर बच्चो को प्रोत्साहन करते है इसके बदले छोटे छोटे बच्चे विदाई गीत गाकर घर वालो को आशीष प्रदान करते है। लोगो के द्वारा मिले हुए अन्न एवं द्रव्य से कार्तिक मास के शरद पूर्णिमा के दिन खीर पूड़ी बनाकर प्रसाद के रूप मे वितरण करते है

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